शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

आवभगत
     
      बनारस शहर के दक्षिणी हिस्से में लंका से सामनेघाट होते हुए गंगा नदी के ऊपर बने पीपे के पुल वाले रास्ते में ही शिवधनी सरदार का घर था। खाते पीते परिवार के स्वामी थे । स्वयं विश्वविद्यालय में तृतीय श्रेणी कर्मचारी थे । एक बांस बल्ली की दुकान थी जहां से निर्माणाधीन मकानों के लिए किराए पर बल्ली पटरे उपलब्ध थे। इसके साथ ही दो तीन जगह पुश्तैनी जमीन थी । अधिकतर को  उन्होंने कई साल पहले बंटाई पर दे रखा था। बंटाईदार भी सालों से फसल कटने के महीने दो महीने के भीतर शिवधनी का हिस्सा पहुंचा देते थे। यद्यपि शिवधनी जानते थे कि बंटाईदार हिस्से में बेईमानी कर रहे हैं लेकिन वो उसको परमात्मा की कृपा मान हील हुज्जत नहीं करते थे। पत्नी फसल के दिनों में ही बार बार कहती कि जाकर देख आओ कि कितना अनाज हुआ है। कहीं बेईमानी से कम तो नहीं दे रहे हैं सब? शिवधनी भी योजना बनाते पर कभी जा न पाते।
      अपना दफ्तर, सुबह शाम मित्र मंडली के साथ गप-शप की आदत और सबसे बढ़कर आवागमन की परेशानी। सभी खेत महज पच्चीस तीस किलोमीटर के डरे में थे और वहाँ पहुँचने के लिए कई बार अनेक साधन बदलने के कारण काफी वक़्त लग जाता था जिसे वो समय की बरबादी मानते थे। शायद यही वजह है कि वो कभी फसल पक जाने के समय निरीक्षण के दौरान अपने किसी खेत पर बंटाईदारों से ताकीद करने नहीं गए। ऐसा भी नहीं कि वो आने जाने में आलस करते हों क्योंकि ऐसी ही जगहों पर बिना किसी ठोस वजह या फायदे के भी वो लगातार आते जाते थे लेकिन फसल के लेन देन में उनका वही सिद्धान्त चलता था जो वे सभी को गाहे बगाहे बताया करते थे,”चना चबेना गंगजल जो पुरवे करतार ; काशी कबहुँ न छाँड़िए विश्वनाथ दरबार”।
पिछले साल पहली बार ऐसा हुआ कि सालों साल से निरन्तर आने वाला बंटाई का अनाज रुपौंधा से नहीं आया। डगमगपुर, पहाड़ा, कैलहट आदि जगहों से सभी बंटाईदार देर सबेर लेन देन करके फारिग हो चुके थे लेकिन रुपौंधा से कैलाश ने न तो कोई खबर दी और न ही खबर का जवाब दिया। पहले घर से पैदल लंका, फिर टेम्पो से रामनगर फिर वहाँ से बस या जीप से नारायणपुर, नारायण पुर से पुनः किसी साधन से अदलहाट और  वहाँ से किसी आते जाते से मदद मांगकर या पैदल तीन-चार किमी चलकर रुपौंधा पहुंचा जा सकता था। चूंकि पिछले साल बारिश भी कम हुई और फसल पकने के दौरान काफी ओले भी पड़े इसलिए शिवधनी ने अनुमान लगाया कि हो सकता है कैलाश फसल बरबाद होने के सदमे के कारण हिसाब नहीं दे गया। लेकिन इस बार तो मॉनसून किसानों पर मेहरबान था। औसत से अधिक बारिश हुई और समय समय पर हुई । खरीफ की फसल तो ऐसी थी कि जमीन का कोई भी टुकड़ा ऐसा न था जो हरा भरा न हो। ऐसे में रुपौंधा की जमीन से कुछ न आना शिवधनी के लिए जहां आश्चर्य का विषय था वहीं उनकी पत्नी के लिए रुपौंधा के बंटाईदार के लानत मलामत करने का एक मौका। वे कहती, “ हमने पहले ही कहा था कि कैलशवा के अबकी बार मत जोतने दो , लेकिन मेरे कौन सुनता है? यहाँ तो काशी नरेश के खानदान से मुक़ाबला करना जो है। शिवधनी खीझ कर कहते ,“ अरे आ जाएगा , काहे मरी जा रही हो? इतना अनाज पिसान आया है उसको तो साफ करने रखने की ताकत नहीं है, खाली कैलाश के पीछे पड़ी रहती हो। हमको मालूम है , जब से खनमन के यहाँ से उसने रिश्ता ठुकराया है तभी से उसके साथ छत्तीस का आंकड़ा है।“ दरअसल खनमन शिवधनी की पत्नी के मायके से ताल्लुक रखते थे और कैलाश के मँझले बेटे से अपनी पुत्री की शादी के लिए कोशिश में थे। कैलाश का पुत्र वैसे तो दसवीं में 6 साल फेल होने के बाद अदलहाट कस्बे में केबल चलाता था और नई पुरानी हिन्दी-अँग्रेजी फिल्मों की पाइरेटेड सीडी बेचता था। लगन के दिनों में शहर में शादी –विवाह समारोह आदि में वीडियोग्राफी भी करता था। अब न जाने इस शहर की हवा का असर था या कि लगातार फिल्म देखने का या इसमें केबल टीवी का योगदान था। उसने खनमन की पुत्री जो कि बारहवीं तक पढ़ी थी, के रिश्ते को उसे काली कहकर ठुकरा दिया था। खनमन इस नकार को दहेज बढ़ाने का संकेत मानकर रकम दूनी करने के साथ दो जोड़ी भैंसें और स्कूटर को बढ़ाकर बुलेट करने पर भी राजी थे। कैलाश की भी अर्ध सहमति क्रमशः सहमति बनते हुए पहले से प्रबल होने लगी थी। लेकिन लड़का अपनी नकार पर कायम रहा। यह बाद में पता चला कि वह शोभा के बहकावे में आ गया जो कि उन दिनों बंबई से गाँव आए थे और कैलाश के मँझले बेटे को अपनी सबसे छोटी साली के लिए उपयुक्त समझने के बाद उसे बंबई के सपने दिखाने लगे थे।
लेकिन इस रहस्योद्घाटन के बाद भी शिवधनी की पत्नी की चिढ़ कैलाश से कम न हुई। क्योंकि कैलाश से खनमन की बेटी की सिफ़ारिश उन्होंने भी की थी। उन्हें अंदाजा भी न था कि उनका बंटाईदार उनकी बात का मान न रखेगा। उनका तर्क था कि बेटे की इतनी हिम्मत जो बाप को मना कर दे। यह कैलाश का ही किया कराया है जो उसने मेरी सिफ़ारिश भी नहीं मानी।
अब कैलाश द्वारा हिसाब न किए जाने से उन्हें भरपूर मौका मिल गया था। शिवधनी जब भी घर आते या दफ्तर जा रहे होते , उनका निंदा पुराण चालू हो जाता। 
      उन्हीं दिनों शिवधनी के कार्यालय में कर्मचारी संघ के चुनावों की घोषणा हुई। शिवधनी कई वर्षों तक कर्मचारी संघ के पदाधिकारी रह चुके थे। स्थानीय होने के नाते कर्मचारियों के बीच उनकी अच्छी पकड़ थी। उनके गुट के समर्थन के बिना कोई भी उम्मीदवार चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकता था। इसी कारण आजकल उनके घर मिलने जुलने वालों और भावी प्रत्याशियों का आना जाना बढ़ गया। कभी कभी तो इतने लोग आ जाते कि चाय पिलाते पिलाते घर में दो भैंसों का दूध भी कम पड़ जाता। एक दिन पगहा तोड़कर भैंस के बच्चे ने सारा दूध पी लिया। शाम को जब दूध दुहने के लिए बड़ा बेटा बाल्टी , रस्सी लेकर पहुंचा तो पिन्हाने के बाद एक भी बूंद दूध नहीं। रात को बिना दूध सभी ने भोजन किया लेकिन उसके आधे घंटे बाद जब शिवधनी दूरदर्शन पर हिन्दी समाचार देख रहे थे और उनकी पत्नी ईंट के टुकड़े से तवा चमका रही थीं, दरवाजे पर दस्तक हुई।
      लुंगी को दोबारा कस कर बांधते हुए शिवधनी ने दरवाजा खोला। बाहर तीन लोग थे। उनके साथी कर्मचारी और मित्र संकठा पाँड़े उम्र करीब 55 साल , एक तथकथित युवा नेता राजेश उम्र करीब 45 साल और मोहल्ले के झंटू पहलवान उम्र करीब 50 खड़े थे। तीनों को उन्होंने सादर अंदर बुलाया। कहने की जरूरत नहीं संकठा के समर्थन के लिए शिवधनी से आग्रह करने के लिए तीनों आए थे। संकठा थे तो शिवधनी के मित्र लेकिन हमेशा विरोधी गुट से खड़े होते और चुनाव हार जाते।  इसी बीच छोटा बेटा गुड़ के साथ पानी रख गया। सबने पिया। मेहमान नवाजी के निर्वाह के लिए शिवधनी ने तीनों से भोजन करने के लिए कहा। पत्नी पीछे से सुन रहीं थीं। सारी रसोई निबटा कर अभी उठी ही थीं कि ये तीनों सज्जन आ गए। भोजन के लिए मनुहार की आवाज़ आते ही जैसे उनके तन बदन में आग लग गई। मन ही मन इष्टदेव को याद किया कि भगवान कृपा करो! और कृपा हो गई। तीनों ने भोजन से साफ इंकार कर दिया। पत्नी ने राहत की सांस ली।
      लेकिन शिवधनी अतिथि सत्कार में इस कदर डूबे हुए थे कि संकठा से बोल पड़े,“ गुरु जी भोजन की इच्छा नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन चाय के लिए आप मना मत करिए” और इसी के साथ आदेशात्मक स्वर में छोटे बेटे को आवाज़ दी चाय ले आओ । पत्नी का क्षणिक सुख फिर से संकट में पड़ गया। रात के दस बजे दूकान बंद। अगर दूध के लिए बेटे को गोदौलिया सट्टी भेजें तो घंटा भर से कम न लगेगा। पड़ोसी से कैसे मांगे? अभी कल ही सिंटू की डब्लू से मारपीट के चककर में उसकी मम्मी से लड़ाई हुई है। अब किस मुंह से दूध मांगे? और क्यों मांगे जिसके घर दो दो भैंसें बंधी हों वो क्या दूध माँगेगा। अभी वे इस उधेड़बुन में ही थीं कि शिवधनी ने चाय के लिए दोबारा आवाज़ लगाई। पत्नी को यह बात खल गई कि यह जानते हुए कि आज दूध नहीं है, शिवधनी बार बार चाय के लिए क्यों ज़ोर दे रहे हैं। उन्होंने अंतिम बार मर्यादा का पालन करते हुए दरवाजे से हर संभव विनम्र आवाज से कहा कि आज शाम को भैंस लगी नहीं। कहिए तो शर्बत घोल दें। शिवधनी को यह अपमान लगा और वो आपा खो बैठे । घर के प्रबंध कौशल की कमी से होते हुए, लड़कों के पढ़ाई में ध्यान न देने आदि के विषय शामिल कर लिए गए और धीरे धीरे बात में पत्नी के मायके के कुप्रबंधन का जिक्र कर बैठे । बस अब क्या था पत्नी का गुस्सा फूट पड़ा। इस बहस को तीनों आगंतुक जितना रोकने का प्रयास करते , बहस नई दिशा में मुड़ जाती। कुछ देर बाद शिवधनी नें संपन्नता की ठसक के साथ एक निर्णयात्मक स्थापना दी, “ गुरु जी घर में कौनों चीज की कमी नहीं है, लेकिन इन काहिलों के चलते बरकत नहीं है।
      पत्नी ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया, “ बस कीजिए बहुत बोल चुके। एक एक चीज सहेज कर रखते हैं हम। आप की तरह लुटाते रहते तो न जाने क्या हाल होता इस घर का?” और इसके साथ ही उन्होंने कैलाश पुराण की व्याख्या कुछ इस तरह से की कि तीनों मेहमानों और स्वयं शिवधनी को भी यह संप्रेषित हो गया कि, कैलाश भले ही बेईमान और धूर्त है लेकिन शिवधनी निहायत डरपोक, दब्बू और आलसी व्यक्ति हैं। बात और आगे बढ़ती लेकिन अचानक बिजली चली गई और तीनों मेहमान भी चले गए।
      इसके बाद शिवधनी और उनकी पत्नी के बीच जम कर झगड़ा हुआ। एक दूसरे के खानदान से लेकर व्यक्तिगत व्यवहार तक सभी मुद्दे गिनाए गए। बड़े बेटे ने जब बीच बचाव की कोशिश की तब उत्तेजना के मारे शिवधनी ने उसे एक अमर्यादित गाली दे दी। और यहीं वह गलती कर बैठे। अब तो पत्नी आग उगलने लगीं और उन्हें भी अपनी गलती का एहसास हुआ। वह झगड़े से पीछे हट ही रहे थे कि उनकी कमजोरी देख पत्नी का जोश बढ़ गया और उन्होंने सरे आम चुनौती दे दी कि अगर हमसे मन पक गया है तो जाकर दूसरी औरत ले आओ। उन्होंने यह भी घोषणा कर दी कि कल वो मायके जा रहीं हैं।
      अगली सुबह वो सच में मायके चली गईं। यह बाद में पता चला कि मायके जाने की वजह शिवधनी से झगड़ा कम बल्कि लल्ला सुनार के यहाँ से पुरानी पायलें बदल कर नई लेना ज्यादा थी। पत्नी के जाते ही शिवधनी पर काम काज का बोझ बढ़ गया। भैंसों को चारा देना, दुहना, दफ्तर के लिए तैयार होना घर की सफाई आदि का प्रबंध करते करते सुबह के 9 बज जाते और खिचड़ी खाकर कितने दिन गुजारा करते। चौथे दिन ही वे दोपहर का भोजन दफ्तर की कैंटीन में लेने लगे। जब उनके साथी कर्मचारियों ने देखा कि वे दो तीन दिन से लगातार कैंटीन में खा रहे हैं तब दफ्तर में खुसफुसाहट शुरू हुई। लगातार कैंटीन का भोजन अपने आप में इस बात का संकेत था कि घर से भोजन नहीं मिला। कैंटीन में वही खाता था जो या तो परिवार से दूर था या अविवाहित। तीसरे दिन संकठा पाँड़े ने उन्हें घेर लिया। शुरुआती ना नुकुर के बाद शिवधनी ने सारा आख्यान सुना दिया।
      संकठा ने उन्हें साफ साफ कहा कि कैलाश की नीयत में खोट है। या तो उसको खबर दी जाए कि यहाँ आकर हिसाब करो या फिर वहीं चलकर कड़ाई से वसूली की जाए। इस क्रम में उन्होंने रुपौंधा के आसपास के रसूखदार लोगों के नाम बताए और उनसे अपने गहरे सम्बन्धों का दावा भी कर दिया। शिवधनी के लिए संकठा की ऐसी डींगें नई न थीं परंतु उन्हें यह योजना पसंद आ गई। तय हुआ कि पहले कैलाश को बुलाया जाए।
      नब्बे के दशक में टेलीफोन हर जगह नहीं पहुंचा था। इसलिए कैलाश को खबर करने का मतलब था किसी को भेजना या खुद जाना। अंतर्देशीय या पोस्टकार्ड भी लिखा जा सकता  था। लेकिन महज इक्कीस किलोमीटर की दूरी के लिए पत्र लिखना व्यावहारिक न था और इस बात की कोई गारंटी न थी कि पत्र का जवाब आएगा भी। एक सप्ताह बाद ही शाम को शिवधनी अपने घर के चबूतरे पर बैठे चाय पी रहे थे। बड़ा बेटा दो दिन पहले ही अपने ननिहाल से माँ को ले आया था। आखिर माँ का दिल बच्चों के खाने पीने की दिक्कत देख पिघल गया और वे बिना मान मनौवल मायके से वापस आ गईं। झंटू पहलवान उधर से गुजरे। दुआ सलाम के बाद पूछ बैठे कि भौजी अभी आ गईं या नहीं। सकारात्मक उत्तर देने के साथ ही शिवधनी ने यह भी बताया कि अभी भी बोलचाल बंद है।
      झंटू दूध के कारोबारी थे। एक बड़े तबेले के मालिक और पहलवान भी। बनारस में दूर दूर से आने वाले बल्टहे उन्हें जानते थे और इज्ज़त करते थे। दूधियों को बनारस की आम भाषा में बल्टहा कहा जाता है। उन्होंने ने सुझाया कि रुपौंधा से आने वाले बल्टहों के द्वारा कैलाश को इत्तला की जाए। मौखिक फिर लिखित। इन्हें अनुमान था कि बल्टहों के माध्यम से खबर गाँव में पहुंचेगी तो कैलास खुद ब खुद हिसाब कर जाएगा। शिवधानी को यह तरकीब भा गई।
      लेकिन कैलाश किसी और ही मिट्टी का बना था। उसने किसी भी संदेश पर कोई तवज्जो नहीं दी। जैसा कि मानवीय स्वभाव की कमियाँ है, शिवधनी के पूछने पर बल्टहे  कैलाश के काल्पनिक उत्तर को बहुत अतिशयोक्ति से नमक मिर्च लगाकर बताते। सच कहें तो बल्टहों को मजा भी आने लगा क्योंकि शिवधनी के घर चाय पानी का आसरा भी हो जाता था। बीस पचीस किलोमीटर साइकिल से दूध ले जाने में एक ब्रेक के तौर पर यह उनके लिए आकर्षक प्रस्ताव था।  एक दिन हद हो गई जब भोनू नामक बल्टहे  ने कैलाश के अनकहे शब्दों की सूचना देते हुए उसमें चुनौती का स्वर भर डाला, “ अगर अमुक अंग में दम हो तो शिवधनी यहाँ से एक दाना ले जाकर दिखाएँ।“यह चुनौती शिवधनी, झंटू सरदार, राजेश नेता आदि को बहुत नागवार गुजरी। तय हुआ कि भय बिनु होई न प्रीति
      अगली शाम ही शिवधनी के घर एक बैठक हुई। बकाया तगादे की वसूली की योजना पर बातचीत के लिए शिवधनी, झंटू सरदार, राजेश नेता के साथ संकठा भी थे। बात राजेश नेता ने शुरू की, कि पहले किसी बहाने से कैलाश को यहाँ बुलाया जाए और बंधक बनाकर उसकी जमकर पिटाई की जाए। जब तक उसके लड़के सारा अनाज या रकम नहीं पहुँचाते, तब तक उसको छोड़ा न जाए। झंटू पहलवान ने पुरजोर समर्थन किया। शिवधनी अभी कुछ कहते कि संकठा पाँड़े बोल पड़े,‘ अबे घर बुलाकर मार पीट करना कायरता है और मर्यादा के खिलाफ भी। तब राजेश ने कहा कि क्या उसके गाँव जाकर पीटे? फिर यह तय हुआ कि मारपीट , थाना पुलिस आदि से नया बखेड़ा खड़ा होगा। कुछ ऐसा किया जाए कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे और कैलाश डर भी जाए। बहुत देर तक बहस चलती रही। एक से एक खतरनाक हल प्रस्तुत किया गया, यहाँ तक कि खलिहान में आग लगा देने से लेकर कैलाश के परिवार पर भूत प्रेत का साया चढ़ा देने तक की योजना बनाई गई । फिर तय हुआ कि कुछ लोगों को लेकर उसके गाँव चला जाए। वहाँ के भी मानिंद और रसूखदार लोगों को बुलाकर फैसला कराया जाए। लेकिन इतने लोगों को एक साथ बुलाना कम मुश्किल काम न था। सबके आने जाने, खाने पीने का खर्च उठाने को शिवधनी हिचक रहे थे। फिर झंटू पहलवान ने एक नायाब सुझाव दिया जिसपर सभी ने हामी भर दी।
      सुझाव यह था कि किसी दिन बिना बताए शाम को चलें जिससे कि कैलाश घर पर ही मिल जाए।बातचीत से माने तो ठीक अन्यथा थाने में मुकदमा लिखवा दिया जाए। सभी को मालूम था कि शाम के समय वह गाय भैंसों की सानी पानी के लिए घर पर ही मिलेगा। चूंकि शाम के बाद सवारियाँ नहीं मिलती इसलिए अपने साधन से ही जाया जाए। कम से कम दो मोटर साइकिलों पर 4-5 लोग चलें जिसमें कम से कम एक बंदूकधारी हो। इसके लिए झंटू के बड़े बहनोई जो कि पुलिस विभाग के रिटायर्ड हवलदार थे, उपयुक्त व्यक्ति थे। और तो और शान बढ़ाने के लिए उनके पास एक दोनाली बंदूक और एक पुरानी बुलेट मोटर साइकिल थी जिसके आगे और पीछे की नंबर प्लेटों पर पुलिस भी लिखा था। बैठक के पीछे से जैसे ही शिवधनी की पत्नी ने उनका नाम सुझाया, संकठा बोल पड़े, वाह सरदारिन क्या दिमाग लगाया है। इस तारीफ से शिवधनी की पत्नी इतनी खुश हुईं कि बिना देर किए घोषणा कर दी, “ अब सब लोग यहीं खाना खा कर जाएंगे, मैंने पूड़ी का आटा सान दिया है”। दूसरा वाहन संकठा की 1978 मॉडल प्रिया स्कूटर थी। चलने का दिन अगला शनिवार की दोपहर बाद का रखा गया जिससे संकठा और शिवधनी को दफ्तर से छुट्टी न लेनी पड़े। बाकी दोनों अपनी मर्जी के मालिक थे।
      शनिवार को शिवधनी के घर सबसे पहले दोपहर एक बजे के करीब बुलेट पर सवार कंधे पर दोनाली बंदूक लटकाए झंटू के बहनोई दाखिल हुए। सफ़ेद शर्ट के साथ खाकी पैंट और काले जूतों के साथ मोजा भी खाकी था , ताकि पुलिसिया रोब गालिब रहे। चाय नाश्ते के बाद थोड़ी न नुकर के साथ उन्होंने भोजन भी किया और बीच बीच में अपना बखान भी करते रहे,कि बहुत दिनों से किसी को धमकाया नहीं। फलां थाने पर फलां विधायक के भतीजे को कैसे पीटा था या फलां डकैत को कैसे काबू में किया था आदि आदि। लोग हाँ में हाँ मिलाते रहे। कुछ देर बाद सफ़ेद कुर्ते पाजामे में लक़दक़ राजेश नेता भी आ गए और हवलदार साहब को डींग हाँकते देख उन्होंने ने भी अपनी शान में कसीदे पढ़ने शुरू किए। परिणाम यह हुआ कि यात्रा शुरू करने से पहले ही दोनों में एक अनचाही दूरी बन गई। कुछ देर में झंटू पहलवान और संकठा भी आ गए। तब तक काम शुभ होने की कामना के साथ शिवधनी की पत्नी ने सभी को बड़े कटोरे में दही  और ऊपर से मुट्ठी भर चीनी डालकर पेश किया। इसके बाद लोगों ने प्रस्थान किया। बुलेट पर हवलदार के साथ राजेश नेता और झंटू बैठे। स्कूटर पर संकठा और शिवधनी सवार हुए। 
      घर से निकलते ही पेट्रोल पम्प पर शिवधनी ने दोनों वाहन मालिकों के बहुत मना करने के बावजूद लगभग पचास किलोमीटर के अंदाजा लगा कर पाँच पाँच लीटर पेट्रोल भरवा दिया। यद्यपि हवलदार ने पेट्रोल भराने से पहले बहुत मना किया लेकिन स्कूटर में भी बराबर का पेट्रोल डाले जाने से वो कुछ उदास हो गए। उनका मानना था कि दोनों वाहनों के माइलेज में काफी अंतर है। चूंकि शिवधनी के पास न तो कोई दुपहिया थी और न ही उन्हें चलाना आता था , इसलिए उन्होंने संकठा  को ही इस निर्णय का जिम्मेदार माना। यही कारण है कि पेट्रोल पम्प पर जब संकठा ने कोई मज़ाक किया तो उन्होंने कोई तवज्जो न दी। इसके बाद दोनों वाहन रुपौंधा की तरफ बढ़ चले। लंका के 2 किमी बाद ही गंगा नदी पर बना रामनगर के पीपे का पुल था। बुलेट तो रेत पर बिछी लोहे की चादरों और लकड़ी के तख्तों से होते हुए मिनटों में गंगा पार की चढ़ाई पर पहुँच गई लेकिन स्कूटर इसी पार लोहे की चादरों की लाइन में जहां से चादर गायब थी वहीं फिसलकर रेत में फंस गई। उस पार करार पर पहुँच कर बुलेट सवारों ने स्कूटर को देखा मज़ाक उड़ाया। हवलदार को संतोष मिला और पेट्रोल वाले अन्याय की तपिश कुछ कम हो गई। जब तक स्कूटर सवार इस पार करार तक आते उन्होंने एक गुमटी वाले को तीन पान लगाने का आदेश दे दिया।
      लगभग 10 मिनट बाद स्कूटर भी वहाँ आया। हवलदार ने शिवधनी से मुखातिब होकर स्कूटर पर फब्ती कसी। झंटू ने भी उसको सेकेंड हैंड बिकवाने का जिम्मा ले लिया। संकठा चुप ही रहे। यद्यपि बुलेट सवार पान खा चुके थे लेकिन मर्यादा स्वरूप उन्होंने स्कूटर वालों के लिए भी पान लगाने का आदेश दिया और पान के पैसे देने के लिए भी हवलदार और संकठा के बीच एक स्पर्धा हो ही रही थी कि शिवधनी ने पान वाले को बीस का नोट थमा दिया। यह तय हुआ कि अब दोनों वाहन साथ ही रहेंगे। कोई दूसरे को छोडकर आगे नहीं भागेगा और न ही रेस लगाएगा। अब राजेश नेता बुलेट से स्कूटर पर आ गए थे और दुनाली अपने कंधे पर रख लिया जिससे बुलेट सवारों को कुछ आराम मिल गया था।  
      रामनगर से लगभग पौन घंटे में दोनों वाहन अदलहाट बाजार पहुंचे। शाम के साढ़े चार बज रहे थे। धूप कुछ कम हो गई थी। कैलाश के बहनोई की खली भूसे की दुकान बाज़ार के आखिरी छोर पर  थी, जहां शाम के वक़्त अक्सर कैलाश खली चूनी के लिए आ जाता था। यद्यपि यह वक़्त दूध दुहने का था फिर भी ये लोग कोई चूक न हो इसलिए एक बार दुकान पर नज़र मार लेना चाहते थे। तय हुआ कि एक वाहन दुकान के सामने से बिना रुके एक चक्कर मार कर आ जाए। चूंकि बुलेट पर सबकी नज़र पड़ जाती है और कैलाश के बहनोई की दुकान को शिवधनी के अलावा झंटू ही जानते थे इसलिए झंटू को संकठा के साथ भेजा गया और बाकी तीनों एक चाय की दुकान पर रुक गए।
      शिवधनी नें दुकान से पानी का जग लेकर पान थूकते हुए कुल्ला किया, चेहरा धोया धूल साफ की और चायवाले को पाँच चाय बनाने को कहा। तब तक स्कूटर वापिस आ गया झंटू ने कैलाश के न होने की सूचना दी। सब चाय पीने बैठे। राजेश नेता की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि लोग उन्हें नेता समझें। इसलिए उन्होंने कंधे से दुनाली उतार कर बेंच पर खड़ी करते हुए चायवाले को जो कि किशोरवय था आदेश दिया,“ अबे देख! तई कड़क पत्ती, धुआंधार, छनाका मार के चाय बनाव तअ , अगर बढ़िया नहीं बनी तो एक पैसा नहीं मिलेगा और पान ठे समोसा भी दे।” चायवाले ने अपने ही तरीके से ही दोयम दर्जे की चाय बनाई। शिवधनी और संकठा ने आधी छोड़ भी दी, लेकिन राजेश नेता अपने चेतावनी की इज्ज़त का असर दिखाने के लिए बोल पड़े, ‘देख अब बनी है मस्त चाय। इसपर बाकी तीनों कुढ़कर रह गए।  चाय पीकर तरोताजा होने के बाद सभी ने गोपाल ज़र्दा और भोला जाफरानी युक्त मगही पान का बीड़ा मुंह में दबाया और रुपौंधा के तरफ बढ़ चले। अभी लगभग पाँच किमी और जाना था।
      सड़क निहायत कच्ची और टूटी हुई थी इसलिए गति भी धीमी थी। गाँव के आधा किमी पहले ही चकरोड़ के बगल से शिवधनी की जमीन शुरू होती थी । कुल चौदह बीघे से थोड़ी अधिक जमीन थी। रबी की फसल के लिए जुटाई भी हो चुकी थी लेकिन अभी बुवाई नहीं हुई थी। शिवधनी के इशारे पर दोनों वहाँ रुके और गाड़ी पर बैठे बैठे ही उन्होंने एक नज़र उनके खेतों को देखा। शिवधनी ने खेत की चारों सीमाओं से बाकी को अवगत कराया। खेत का आकार देख हवलदार बोल पड़े बताइए यह साला इतने बड़े रकबे पर ऐय्याशी कर रहा है और आप वहाँ उल्लू बने बैठें हैं।  
      वैसे तो कैलाश का पुश्तैनी मकान गाँव के भीतर जाकर था लेकिन दो फ़र्लांग पहले ही उसने अपना अड़ार बना रखा था। अड़ार यानी ठीहा। इस अड़ार में एक कच्चे कमरे से लगी दो झोपड़ियाँ थीं। झोंपड़ी के बरामदे में एक खँचिया पलटी हुई थी, जिसके ऊपर एक कठौता और उसके ऊपर सिल-लोढ़ा रखा हुआ था। पहली झोंपड़ी में दो-तीन खाट और दूसरे में भूसा भरा था। बगल में ही कुआं था । कुएं के दूसरी तरफ दो बैल, एक गाय और एक भैंस बंधी थी। बीच की जगह में पुआल का एक बड़ा सा ढेर था। दोनों गाडियाँ यहीं रुकी । वहाँ एक 14-15 साल का बच्चा चारे की मशीन से चारा काट रहा था। स्कूटर से उतरते ही राजेश नेता नें दुनाली बंदूक को कंधे से उतारकर इस तरह हाथ में लिया की उसकी नली सामने की ओर कुछ झुकी रहे और बच्चे से पूछा, ‘ अबे कैलसवा कहाँ है?’ बच्चे ने अनमनस्य भाव से बताया, दादा नहीं हैं। अबकी शिवधनी ने पूछा कि , ‘कहाँ गए और कब तक आएंगे ?’ तब बच्चा जो कि शिवधनी को पहचानता था, चारे की कटाई छोड़ उनके पास आया , पाँव छुए और बोला कि अभी घंटे भर पहले यहीं थे मालूम नाहीं कहाँ गए। इतना कह कर उसने झोपड़ी से दो चारपाइयाँ निकाली और और दोनों पर पुराने से गद्दे बिछा दिए। इसके बाद वह साइकिल उठाकर संभवतः घर पर बताने के लिए चला गया।
      पांचों सज्जन चारपाइयों पर बैठे थे। कुछ हताश भी थे। राजेश नेता ने चुप्पी तोड़ी, ‘लगता है ससुरे को हमारे आने की खबर लग गई और भाग गया। चलिए अब वापस चला जाए। बड़ा बेटा भी अब गाँव में रहता नहीं तो क्या अब पतोहू से हिसाब किया जाएगा। झंटू पहलवान बोले, ‘अभी रुक जाते हैं। लड़कवा घर गया है चाय पानी लेने। जब आ जाए तब बिना पानी पिये चला जाएगा, ताकि कैलसवा को मालूम हो कि हम लोग गुस्से में लौटे हैं। यह सुनते ही हवलदार साहब भड़क गए। सब आपलोगों के कारण हुआ है, ‘घर से निकले नहीं कि गंगा पार होते ही पान चाहिए। फिर क्या जरूरत थी बाज़ार में चाय नाश्ता करने की? जब पता है कि रुपौंधा के बल्टहे दूध देकर बनारस से दोपहर बाद इसी रास्ते से लौट रहे होंगे तो बार बार रुकने का कोई मतलब ही नहीं था। भला कोई बीस किमी के सफर में वो भी गाड़ी से दो दो बार रुकता है? अब खोजिए कैलसवा को। हमको पूरा शक है कि किसी बल्टहे  ने ही खबर की है। हवलदार के गुस्से के का किसी ने प्रतिवाद न किया। सूरज अब डूबने ही वाला था। सब शांत बैठे थे और गाँव की तरफ देख भी रहे थे कि कौन आता है। 
      लगभग दस मिनट बाद पीछे से साइकिल की घंटी और एक आवाज आई , पाँय लगीं भईया। सभी ने सड़क की दूसरी तरफ देखा और स्तब्ध रह गए। साइकिल सवार कैलाश था। कंधे पर गंदा सा गमछा, आधी बांह का कुर्ता ,चारखाने की लूँगी और पैरों में प्लास्टिक की बहुत पुरानी कई बार मरम्मत हो चुकी चप्पल। साइकिल के हैंडिल पर एक झोला लटका हुआ था।
      कैलाश ने कुएं के सहारे साइकिल खड़ी की , झोले को झोंपड़ी की खूंटी से टांगा, दो तीन तकिये उनलोगों के पास रखे, और बाल्टी उठाकर कुएं से ताजा पानी भरने लगा। इन पांचों सज्जनों में से कोई कुछ बोल पाता इससे पहले कैलाश ने बोलना जारी रखा। भईया पानी निकाल देता हूँ आपलोग हाथ मुंह धो लें। हमको तो तीनई बजे मालूम हो गया था कि आप लोग आ रहे हैं”। राजेश नेता टोक  पड़े, गजब जासूस फिट किए हो यार। कैलाश कहता गया, “अरे उ रमेसरा का लड़का दसासुमेध से बंधी निपटा के लौट रहा था, उसी ने बताया कि भईया लोग इधरै आ रहे हैं। हम सोचे कि अभी चले हैं तो डेढ़ दू घंटा लगेगा तब तक शाम हो जाएगी । और पहली बार पाँड़े जी, पहलवान, बहनोई और नेता जी हमरे दुआर पे आ रहे हैं त बिना जूठा गिराए जाने थोड़े देंगे। इसलिए भाग के इमिलिया चट्टी गए आ प्रधान जी के यहाँ से दू ठो देसी मुर्गा ले आए । इस वाक्य के खत्म होने तक शिवधनी के अलावा चारों व्यक्तियों की कैलाश के प्रति अवधारणा कुछ कुछ बदलने लगी थी। ये चारों बंटाई और तगादे के प्रति तटस्थ से होने लगे थे। कैलाश बोलता रहा , ‘उसके बाद अदलहाट गए थोड़ा मर-मसाला, बिलइती भिस्की और पान सिगरेट लेकर बाजार से चले ही थे कि पाँड़े जी का स्कूटर दिखा। हम हाथ भी दिए लेकिन पाँड़े जी ने अचानक वापिस मोड लिया। तब हम जल्दी जल्दी खेत खेत होते हुए मेंड़ों के रास्ते साटकट भागे , लेकिन भईया अब बुलेट और स्कूटर का साइकिल से बराबरी कैसे होगी
      तब तक कैलाश दो बाल्टी पानी निकाल चुका था और घर से जलपान की सामग्री आ गई थी।  थाली भर सूजी का गरम हलवा, एक थाली पकौड़ी, लोटे में चाय और कुछ बंधे हुए पान । राजेश और झंटू कुएं की जगत पर हाथ मुंह धो रहे थे। जलपान करते हुए इधर उधर की बातें होने लगी तभी शिवधनी थोड़े चिढ़े हुए बोले कि अरे हम लोग रुकेंगे नहीं , क्या जरूरत थी इस भाग दौड़ की। लेकिन शेष चारों ने उनकी बात पर कोई ध्यान न दिया। तब तक कैलाश ने खँचिया पर रखे कठौते और सिल बट्टे को हटा कर खँचिया से नीचे से दो मुर्गों को निकाला और उनके पैर बाँधकर झोंपड़ी के बरामदे मे सबके सामने लटका दिया। यद्यपि सूरज डूब चुका था पर अभी भी उजाला पर्याप्त था। ऐसे रंग बिरंगे देसी मुर्गों को देख संकठा बोल पड़े,’ अरे भईया शहर में ई सब माल कहाँ मिली? शिवधनी फिर बोले कि ई सब रहने दो एतना टाइम नहीं है हम लोगों के पास। अक्तूबर की ढलती शाम, पितृ पक्ष आरंभ होने से महज दो दिन पहले का दिन और देसी मुर्गा, बिलइती भिस्की, जूठा गिराना जैसे शब्दों का गुंफन और सबसे बढ़कर कैलाश की अतिशय विनम्रता, इन सबके मिले जुले प्रभाव के बीच किसी ने शिवधनी की बातों का समर्थन तो दूर हाँ में हाँ तक ना मिलाया। हवलदार को अपनी दुनाली गैरज़रूरी महसूस होने लगी।
      कैलाश अचानक साइकिल लेकर कर कहीं लपका। झंटू ने आवाज़ दी, ‘कहाँ यार। कैलाश ने उत्तर दिया कि पहलवान बस दो मिनट में आए। शिवधनी ने दोबारा समय न होने की बात दुहराई। अब संकठा बोल पड़े, ‘अब कैलसवा एतने मन से इंतजाम किया है, त तोहें टाईम नाहीं हव। अरे भाई जब भगवान भी प्रेम और श्रद्धा के आगे कुछ नाहीं कर पाए त हमार तोहार कौन औकात?’ शिवधनी समझ गए कि देसी मुर्गे और व्हिस्की देख इन लोगों ने पाला बदल लिया है, लेकिन बहस की मुद्रा में बोले, ‘अरे गुरु भगवान प्रेम के आगे बेबस होते हैं लेकिन प्रेम सच्चा होना चाहिए। ई कैलसवा जइसे मक्कार के घड़ियाली और दिखावटी प्रेम से भगवान थोड़े ही प्रसन्न होंगे। यद्यपि संकठा और शिवधनी गहरे दोस्त थे लेकिन शिवधनी का यह उत्तर संकठा को अपने कुल, जाति और शिक्षा पर प्रश्नसूचक महसूस हुआ। रही सही कसर राजेश नेता ने पूरी कर दी, ‘कहिए पाँड़े जी है कोई जवाब कि अब इहाँ से घोड़ी बढ़ाया जाए संकठा ने इसे चुनौतीपूर्ण शास्त्रार्थ के रूप में लिया और बोले, ‘देखो भाई प्रेम और श्रद्धा का कोई मुक़ाबला नहीं है। अब ई जितने रावण, बाणासुर, भस्मासुर भगवान से वरदान पाए, उ अपने तपस्या और प्रेम से ही न पाए। और क्या भगवान को पता नहीं था कि ये साले आगे जाकर नंगा नाच करेंगे। लेकिन फिर भी भगवान ने राक्षसों को वरदान देने से मना नहीं किया। और शिवधनी की ओर इशारा करते हुए बोले कि एक ठे ई हऊवन कि एनके पास टाइम नाहीं हव। इस बात पर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया। शिवधनी भी निरुत्तर होकर मुसकराने लगे।        
      तब तक कैलाश लौट आया। साइकिल पर एक 20-22 साल का लड़का था। कैलाश ने दो तीन गमछे और लूँगी लाकर चारपाई पर रखे। और बोला कि भईया आपलोग थोड़ा कपड़ा बदल कर आराम से बइठें , तब तक ई लड़का शिकार बनाने की तैयारी करता है। इसके साथ ही उसने प्याज, लहसुन और मसाले आदि से भरा झोला खाली कर दिया। हवलदार पुलिस की नौकरी के दिनों से ही मीट मुर्गा बनाने में अपना सानी नहीं रखते थे। इसलिए वे लड़के से पकाने का उसका तरीका पूछने लगे। राजेश नेता ने लोटे में पानी भरा और बिना किसी लाग लपेट के गमछा लपेट कर खेतों की ओर बढ़ गए। कैलाश ने प्याज लहसुन आदि छीलना शुरू किया कि शिवधनी पूछ बैठे, कि कैलाश आजकल राती के घर नाहीं जईता। कैलाश ने उत्तर दिया नहीं भईया अब यहीं रात गुजरती है। घर से खाना पानी आ जाता है। जब से नीलगाएं  पिछली फसल चर गईं, तब से रात में अगोरना पड़ता है।
      इस बीच लड़के ने मुर्गो को शहीद करके पकाने के लिए टुकड़ों में काट लिया था लेकिन ऐन वक़्त पर हवलदार साहब ने कमान संभाली और लड़के को यह कहते हुए वापिस कर दिया कि तुम जाओ हम लोग आराम से बनाएँगे और तुम्हें रात में गाँव लौटने में देर होगी। यद्यपि लड़का लौटना नहीं चाहता था लेकिन कैलाश ने उसे भेज दिया। राजेश निबटकर लौटे और कुएं पर नहाने लगे। कैलाश ने तुरंत झोले से निकाल कर मोती साबुन की बट्टी दी। झंटू ने भी मोती साबुन देख आश्चर्य व्यक्त किया और शायद साबुन के कारण ही नहाने चले गए। इधर चूल्हे पर आग सुलगा कर हवलदार मसाला भूनने में लगे थे और उधर संकठा का इशारा पाकर कैलाश ने चारपाई पर एक तख़्ता टिकाया और उसपर बैगपाइपर की एक बड़ी बोतल और नमकीन के पैके और मिक्स भूजे के ठोंगे के साथ पाँच गिलास जमा दिए। पांचों गिलास अलग अलग आकार के थे। संकठा ने बगल में रखा प्रीतम दालमोट का एक बड़ा पैकेट खोलकर जलपान के लिए आई पकौड़ियों की थाली में पलट दिया और हलवे की थाली को धुलवाकर उसमें सलाद काटने लगे। चूंकि इस दल में संकठा सबसे वरिष्ठ थे और बाकी लोग उन्हें गुरु कहकर संबोधित करते थे इसलिए मदिरा वितरण में साकी की भूमिका उनका डीफैक्टो अधिकार था।
      यह एक स्वतःस्फूर्त परंपरा है कि जब कुछ लोग एक साथ पीते पिलाते हैं तो वरिष्ठ व्यक्ति ही अधिकतर पेग बनाता है। हवलदार मसाला भूनकर बर्तन ढंकने के बाद आंच धीमी कर चुके थे। राजेश और झंटू का नहाना धोना भी समाप्त हो गया था। आकाश में चाँदनी कुछ गहरी हो गई थी । तभी संकठा ने आवाज़ दी, ‘का सरदार तब महफिल जमै ’? वैसे प्रश्न शिवधनी को देखते हुए था लेकिन राजेश बोल पड़े, ‘त अऊर का। बस सभी लोग चारपाइयों पर जम गए। कैलाश नीचे ही बैठा रहा। गिलास पाँच ही थे, कैलाश के लिए गिलास नहीं था। संकठा ने पूछ कैलाश तू कौने चीज में लेबा? कैलाश ने हाथ जोड़कर कहा, ‘अरे भईया आप लोग लें अगर बची त हम बाद में ले लेब। इस विनम्रता पर झंटू लगभग रीझते हुए बोले अरे नाहीं यार लियाव कौनों गिलास उलास अगर होय त। कैलाश ने पुनः मना कर दिया, नहीं आप लोग लें। यह मान मनौव्वल कुछ देर और चलती अगर शिवधनी ने इसका कुछ कठोर स्वर में पटाक्षेप न कर दिया होता, ‘अबे लियाव एक ठे गिलास, तेल लगवावत हउवन .......ड़ी के। चूंकि गिलास उपलब्ध न था इसलिए चाय के एक जूठे कप को धोकर कैलाश ने संकठा को दे दिया। संकठा की एक आदत बाकी सभी को खटक रही थी लेकिन गुरु परंपरा का सम्मान करते हुए किसी ने आपत्ति न जताई। यह आदत कुछ ऐसी थी कि दूसरों का पेग बनाते वक़्त संकठा बोतल से व्हिस्की ऐसे डालते थे जैसे किसी को होमियोपैथी की दवा दे रहे हों, लेकिन खुद के पात्र में सहसा किसी प्रसंग को याद करते हुए दूसरों से दूनी या तिगुनी मात्रा डाल देते थे। इसके बाद यों स्वांग करते थे कि ओह गलती हो गई, ज्यादा चला आया। सब थोड़ा कुढ़ते लेकिन कोई न कोई बोल पड़ता अरे चढ़ा जा गुरु , सब भगवत कृपा हव।
      इसके बाद कई दौर चले। चखना खत्म होने पर जांच के बहाने पक रहे मुर्गे के कुछ पीस निकाले गए   । कैलाश के घर से चावल, रोटी, देसी घी और पत्तल इत्यादि लेकर उनका पोता आ चुका था। व्हिस्की खत्म हो चुकी थी। सुरूर में झूमते हुए शिवधनी और संकठा तरोताजा होने के लिए खेतों में चले गए। खाना एकदम तैयार था। राजेश ने उनको जाते देख आवाज़ दी, गुरु ज्यादा दूर मत जाइएगा। अंधेरा काफी है। इधर ही....। खेत से आने के बाद लोटा माँजते हुए संकठा ने शिवधनी से कहा, ‘एक बात हव शिवधनी ई कैलसवा भले केतनों धोखेबाज हो लेकिन साला दिलेर है। कोई और होता तो हमारे आने की खबर पाकर मुंह न दिखाता, झूठ मूठ का बहाना करके कहीं भाग गया होता, लेकिन ई ससुरा यहीं डटा हुआ है। मरजाद भी बहुत कायदे से निभा रहा है। कुछ भी कहो है तो सरवा नंबर एक का बेईमान लेकिन खानदानी है। आज के जुग में कउन एकरी......... ऐसी आवभगत करता है। शिवधनी ने उत्तर दिया, ‘गुरु हम भी इसका ऐसा रूप पहली बार देख रहे हैं।  
      इसके बाद सभी ने बड़े धैर्य से देसी मुर्गे का लुत्फ लिया। खाना खत्म होने के बाद लोगों ने पान इत्यादि लिया। शिवधानी के घर के लिए एक बड़े झोले में कुछ ताज़ी सब्जियाँ कैलाश ने भर दी लेकिन कौन पकड़ेगा यह कहकर उसे लौटा दिया गया। रात के साढ़े दस बज चुके थे। इसके बाद दोनों वाहन स्टार्ट हुए। हवलदार बुलेट की किक लगाते हुए सोच रहे थे कि अब शायद शिवधनी कैलाश से कुछ तगादा करेंगे। लेकिन इसके उलट शिवधनी ने उनके पोते को जो जूठे बर्तन आदि समेत रहा था, बुलाया और एक बीस का नोट उसे देते हुए बोले, ले बे मिठाई खा लेना। संकठा ने हवलदार से ताकीद की, ‘बहनोई थोड़ा धीरे ही चलिएगा। इस पर हवलदार अपनी खुन्नस भूलकर बोले, ‘गुरुजी आपै आगे रहँय।   
      इसके बाद दोनों वाहन बिना कहीं रुके सीधे बनारस पहुंचे। राजेश अपने घर के पास उतरे। हवलदार की दुनाली अब झंटू ने ले ली। कुछ और आगे झंटू और उनके बहनोई अपने घर के रास्ते की ओर अलग दिशा में मुड़ गए। शिवधनी का घर आने ही वाला था कि संकठा पाँड़े ने अचानक स्कूटर रोका और बोले, ‘ कहो सरदार, का बतइबा सरदारिन के’?
शिवधनी दो पल सोच में पड़े और बोले, गुरु उ सब हम देख लेंगे लेकिन आप लोग माहौल ठंडा होने तक एकाध हफ्ता हमारे घर मत आइएगा।
      संकठा ने शिवधनी को सायास उनके मकान से पाँच-सात घर आगे बढ़ाकर अकालू गुरु के मकान के सामने उतारा और तेजी से स्कूटर बढ़ा दिए।  
    






भगेलू सिंह
      रामनगर किले पर तैनात पी ए सी के क्वार्टर गार्ड के जवान ने शाम के चार बजने की सूचना पीतल के घंटे को चार बार बजाकर दी। तभी चुंगी पर आते दिखे भगेलू सिंह। सफ़ेद लूँगी और गंजी पहने। सहेबन धोबी की दुकान पर दो मिनट के लिए रुके कुछ खादी के कुर्ते और धोतियाँ इस्तरी करने को दी और लल्लन की पान की दुकान पर आ गए। एक पान खिलाने को कहा, मौसम को कोसते हुए इंद्रदेव को एक मीठी सी गाली दी और बगल के पत्थर पर बैठ गए। यह उनका रोजाना का क्रम था। शाम चार बजे आते फिर रात आठ बजे तक यहीं बैठते। भगेलू सिंह काफी बड़े काश्तकार थे। बाप दादाओं ने इतनी जमीन जायदाद छोड़ रखी थी कि उन्होने कभी कोई नौकरी नहीं की। खाता पीता परिवार और बड़ा लड़का कॉलेज में प्राध्यापक। तीनों बेटियों की शादी भी हो चुकी थी। दामाद नौकरी में थे। इससे ज्यादा सुख एक गृहस्थ को क्या चाहिए।लेकिन कहते हैं कि अपनी बड़ाई सुनने की लत बड़ी खतरनाक होती है। इसका नशा किसी गाँजा, भांग, अफीम या कि ड्रग्स से भी खतरनाक होता है। इस बड़ाई सुनने की लत के महरोगी थे भगेलू सिंह।
      यह लत इस कदर लग चुकी थी कि उनके जीवन चर्या में इसका असर हर जगह दिखता। जैसे ब्याह-शादी के निमंत्रण में यदि कार्ड पर सिर्फ श्री भगेलू सिंह, रामनगर लिखा होता तो लड़के की शादी की बारात में वो नहीं जाते, और यदि लड़की की शादी हो तो बारात-जयमाला आदि के बाद जाते और खाने के बाद शगुन का लिफाफा जिसमें 21 रु होते लड़की के पिता या जो कॉपी में लिख रहा होता, उसे देकर खाने की कमियाँ गिनाते हुए घर चले आते। यदि कार्ड पर ठा. भगेलू सिंह, बड़ा घराना आदि लिखा होता तो वे लड़के की शादी के बारात में जाते और लड़की की शादी में 101 रु का शगुन और बारात से पहले पहुँचते, खाने की बुराई नहीं। उनकी इस आदत का परीक्षण एक बार जगदीश पांडे ने अपनी बहन की शादी में किया। निमंत्रण पत्र पर लिखा, ‘श्रीयुत ठाकुर भगेलू सिंह जी (बड़ा  घराना), वरिष्ठ नेता कांग्रेस (इ), रामनगर। कहने की जरूरत नहीं कि भगेलू सिंह विवाह से पहले जगदीश से अपने लायक कोई काम पूछा। विवाह के दिन अपने 2 नौकरों के साथ दोपहर ढलते ही पहुँच गए, हलवाई, सजावट वालों और टेंट वालों को ठीक से काम करने के लिए धमकाते रहे। शगुन में 501 रु और साड़ी भी दी और जब सुबह विदाई में हलवे और चाय के लिए चीनी कम पड़ रही थी तो नथुनी साव से सुबह सुबह दुकान खुलवाकर पचास किलो का एक बोरा भी उधार मंगा दिया। बाद में जब जगदीश के पिता जी चीनी की रकम लौटाने पहुंचे तो भगेलू सिंह ने कहा किस बात का पैसा? क्या सारी चीनी तुम खाए हो? जगदीश के पिता बोले नहीं। भगेलू बोले फिर किस बात का पैसा? जगदीश के पिता फिर बोले कि हमारी बेटी की शादी में आपका पैसा लगा वह तो मुझे लौटाना है। तब तक भगेलू सिंह से 2 मिलने वाले आ गए। भगेलू बोले कि अबे पंडित क्या तुम्हारी बेटी हमारी बेटी नहीं है? पंडित जी निरुत्तर हो गए। उनके जाने के बाद मिलने वाले 2 व्यक्तियों ने भगेलू सिंह को धर्मात्मा और दानशील मान लिया लेकिन उनका भ्रम ज्यादा देर न रह सका। जैसे ही कुछ सकुचाते हुए उन दोनों ने पाँच हज़ार रु की आवश्यकता बताई, भगेलू सिंह ने तुरंत हामी भर दी और घर के भीतर से रु लेकर आ गए। उन दोनों में से बड़े ने जैसे ही कहा कि बाबू साहब हम छह महीने में पैसे वापिस कर देंगे, भगेलू सिंह बोले कि छह महीने क्या छह साल में वापिस करो लेकिन ब्याज पाँच रु सैकड़े रहेगा और कुछ जमानत वगैरह लाए हो।      
      भगेलू सिंह अपनी युवावस्था में किसानों के आंदोलन में शरीक होते थे । संसोपा, दमकिपा से होते हुए लोकदल में शामिल होकर  दिल्ली लखनऊ आने जाने लगे थे और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चरण सिंह के साथ एक तस्वीर भी खिंचवा ली थी, जो बहुत दिन तक उनके बैठक में लगी थी। नेता बनने की कोशिश में लगे ही थे कि केंद्र कांग्रेस सरकार ने आपातकाल लगा दिया। विपक्षी दल के लोग जेल भेजे जाने लगे। भगेलू सिंह वैसे निर्भीक व्यक्ति थे लेकिन खेती किसानी ठीक ठाक चलती रहे और खेतों पर कोई कब्जा न कर ले इसलिए आपातकाल लगते ही कांग्रेस के सदस्य बन गए। घर के ऊपर एक चरखेवाला तिरंगा भी फहरा दिया, ताकि दूर से ही पता चले की किसी कांग्रेसी का घर है। शायद यह झण्डा कभी बदला नहीं गया था क्योंकि आपात काल खत्म हुए लगभग पचीस वर्षों के बाद दूर से यह लगता था की किसी पोछे के कपड़े को डंडे से खड़ा किया गया है। यद्यपि उनके कुछ विरोधियों ने थाने मे राष्ट्र ध्वज के अपमान का आरोप लगाकर गुमनाम शिकायत भेजी थी, फिर भी कुछ न हो सका। एक तो भगेलू सिंह गणमान्य व्यक्ति थे और दूसरा तर्क यह कि झण्डा कांग्रेस का है न कि राष्ट्रीय इसलिए पुलिस के बाहर का मामला है। उत्तर प्रदेश में जब तक कांग्रेस के सरकार रही तब तक भगेलू सिंह की कस्बे में काफी इज्ज़त थी। यद्यपि भगेलू सिंह पर न तो कोई मुकदमा था न ही उन्होने किसी पर कोई मुकदमा कर रखा था, फिर भी रोजाना सुबह कचहरी और शाम को थाने पर जाकर एकाध घंटा बैठना उनकी नियमित दिनचर्या थी। कस्बे ही नहीं आस पास के गाँव में भी कहीं झगड़ा,लड़ाई, चोरी, डकैती या जुए आदि के साथ साथ मामला दीवानी का हो या फ़ौजदारी का, लोग भगेलू सिंह को साथ लेकर ही थाने में जाते थे। यहीं नहीं बिना पुलिस कचहरी के भी छोटी मोटी घटनाओं में भगेलू सिंह सुलह करवा दिया करते थे।
      जब तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार रही, भगेलू सिंह स्वनाम धन्य नेता थे। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी उनको कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया लेकिन वे चवन्नीया सदस्य रहकर भी जलवे में  वे किसी विधायक से कम नहीं थे। सन 1989 में जनता दल की सरकार बनी। बहुत से पुराने और नए कांग्रेसी नेतागण और कार्यकर्ता जनता दल में शामिल हो गए। सभी को उम्मीद थी कि भगेलू सिंह भी जनता दल में शामिल हो जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उनके राजनीतिक गुरु बृजबिहारी मिसिर ने अनुमान लगाया कि 1977 की जनता पार्टी की तर्ज पर ही 2-4 सालों में जनता दल का कुनबा बिखर जाएगा और कांग्रेस प्रदेश में सरकार बनाएगी।  और तब तक पार्टी के संकट के दिनों के समर्पित कार्यकर्ता के रूप में भगेलू सिंह का कद काफी बढ़ जाएगा और अगले चुनाव तक वो लखनऊ या दिल्ली का टिकट पा ही लेंगे। भगेलू सिंह उनकी सलाह पर अमल करते रहे।एक सच्चे सिपाही के तौर पर अपने विरोधियों और उनके नेताओं पर बेबाक टिप्पणियाँ भी करते रहे। गाहे बगाहे अनशन पर भी बैठे लेकिन उनके स्वप्नों को पंख न मिल सका। 1989 से सत्रह बरस बीत गए लेकिन कांग्रेस फिर सत्ता में नहीं आ सकी थी। इधर उनके चेले चपाटे कार्यकर्ता से नेता बनने लगे थे। प्रदेश कांग्रेस कमेटी की नई कार्यकारिणी में उनकी बिना सहमति के युवा जोश के नाम पर उनके एक चेले रघुनाथ को पार्टी जिलाध्यक्ष बना दिया गया। यह बात उन्हे बहुत खली लेकिन उन्होने यह जाहिर किया कि उस चेले की सिफ़ारिश प्रदेश कमेटी से उन्होंने ही की थी।
      यद्यपि चुंगी पर बैठनेवाले भगेलू सिंह की डींगों से बखूबी वाकिफ थे लेकिन शाम की चाय या पान और थोड़ा मनोरंजन के चलते सभी हाँ में हाँ मिला देते। उनकी डींगों का समय शाम को तय था। भगेलू जानते थे कि सब पीठ पीछे उनका मज़ाक उड़ते हैं लेकिन अपनी आदत से वो लाचार थे। बढ़ती उम्र के कारण अब रोजाना थाना, कचहरी का चक्कर उनसे नहीं लग पता था और यू पी में प्रशासन और पुलिस अधिकारियों के तबादले इतनी जल्दी होने लगे थे कि किसी अधिकारी से परिचय कुछ परवान चढ़ता , इससे पहले उसकी बदली हो जाती। पहले कि तरह डेढ़ दो साल की पोस्टिंग अपने आप में बड़ी बात थी। एक दिन अचानक नाटे मिस्त्री के बेटे को जुआ खेलते हुए पुलिस पकड़ ले गई। नाटे सिफ़ारिश के लिए भगेलू सिंह के पास आए। भगेलू सिंह थाने गए और अपनी हर कोशिश के बाद भी नाटे के बेटे को छुड़ा न सके। नाटे ने रघुनाथ से संपर्क किया और उसका बेटा कुछ घंटों में छूट गया। हालांकि उन्हें थोड़ा झटका लगा फिर भी उन्होने नाटे को सफाई दी कि इस दारोगा को एक बार मैं एसपी से डांट लगवा चुका हूँ इसलिए बदमाश ने बदला लिया। नाटे मुस्करा कर चला गया।
      कुछ ही दिनों बाद अखबार में खबर आई कि कांग्रेस का वार्षिक महाधिवेशन 20-23 अक्तूबर को  बंगलोर में होगा। भगेलू सिंह ने तारीख और समय नोट कर लिया। चुंगी के कुछ आगे गुलाब कबाड़ी का लड़का श्यामबाबू रोजाना डिग्री कॉलेज में पढ़ने शहर जाता था। अगली सुबह वह जैसे ही घर से निकला सुबह भगेलू सिंह ने उसे आवाज दी और आस पास बैठे लोंगों को सुना कर कहा, बेटा शहर जा रहे हो तो मेरा इलाहाबाद से बंगलोर का रेल में आरक्षण करा देना। 17 या 18 अक्तूबर को जाने का और 24 को उधर से लौटने का। याद रखना वरिष्ठ नागरिक वाला टिकट लेना। उम्र पैंसठ साल। यह कहते हुए उन्होने सौ सौ के कुछ नोट श्यामबाबू को दे दिए। कहने की आवश्यकता नहीं कि शाम तक इलाके में हल्ला मच चुका था कि भगेलू सिंह कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में बंगलोर जा रहे हैं। कुछ विरोधी दल वालों ने प्रतिवाद भी किया कि अरे नहीं इनको कौन पूछता है कांग्रेस में, तब लोग कहते कि नहीं गुलाब कबाड़ी के लड़के को खुद उनहोंने टिकट के पैसे दिए और शाम को लड़का टिकट भी ले आया जिसे चुंगी पर भगेलू सिंह को सौंपते उसे कई लोगों ने देखा। जिस कस्बे से लोग बंबई कमाने के अलावा बस अगल बगल के जिलों तक ही आते जाते हों वहाँ भगेलू सिंह का बंगलोर जाना वह भी कांग्रेस सम्मेलन में एक बड़ी खबर थी। लोगों ने उत्सुकता वश पूछा कि क्या कोई निमंत्रण आया है? भगेलू सिंह जवाब देते कि हाँ फोन आया था। बाबू साहब (अर्जुन सिंह )और तिवारी जी (नारायण दत्त तिवारी ) ने भी आग्रह किया है। वो तो दिल्ली बुला रहे थे लेकिन मैंने ही मना कर दिया। लोग फिर पूछते कि आप ही को क्यों बुलाया? जिला और मण्डल कमेटियों की छोड़िए, यहाँ तो प्रदेश कमेटी से भी गिने चुने लोग ही जा रहे हैं। फिर भगेलू सिंह ठहाका मार कर जवाब देते, ‘गुरु यही तो मार्के की बात है। जब से युवा जोश के चक्कर में नए नए लौंडों को पदाधिकारी बनाया गया है, तब से पार्टी की दुर्गति हो रही है। नए लौंडे-लफाड़ी सब क्या जानेंगे कि संगठन क्या होता है? सबको साथ लेकर चलने की कूबत है नहीं इस नई पीढ़ी में। इसीलिए इस बार हाई कमान ने वरिष्ठ कांग्रेसियों को ज्यादा तवज्जो दी है। हम तो गुरु एडवांस में रिज़र्वेशन करा लिए हैं। ई वेटिंग सेटिंग के चक्कर में इसको उसको फोन घुमाने के चक्कर में कौन पड़े। इसके साथ वो व्यंग्य से चुटकी लेते, ‘पता नहीं रघुनथवा किस गाड़ी से जा रहा है? कोई कहता रघुनाथ नहीं जा रहे हैं, उनको निमंत्रण नहीं मिला। तब भगेलू सिंह कहते हो सकता है बुलावा डाक से आ रहा हो। और नहीं भी आवे तो हम उसको अपने साथ ले चलेंगे। हमारा तो बर्थ कनफर्म है। बारी बारी से कमर सीधी कर लिया जाएगा।  अपना बच्चा है, देश दुनिया देखनी चाहिए। अभी उसको बहुत आगे जाना है। भगेलू सिंह के करीबी रघुनाथ के लिए उनकी इतनी उदारता से हैरान थे और इस अफवाह को भी फैलाने लगे थे कि रघुनाथ को ज़िला अध्यक्ष होते हुए भी पार्टी ने नहीं पूछा। यह बात जब रघुनाथ तक भी पहुंची तो उसे हैरानी हुई लेकिन वह भीतर से थोड़ा डर गया। स्थानीय चुनाव में पार्टी की करारी हार से उसका अध्यक्ष पद स्वयं खतरे में था। आखिर भगेलू सिंह किसी जमाने में उसके गुरु थे। उसने तत्काल भगेलू सिंह को फोन घुमाया। बोला कि बाबूसाहब कल आपके दर्शन के लिए आ रहा हूँ। यद्यपि भगेलू दिनभर खाली रहते थे लेकिन बोले कि कल जरा गाजीपुर जाना है लेकिन दोपहर बाद लौट आऊँगा। उन्होने रघुनाथ को शाम साढ़े चार-पाँच बजे ही बुलाया।
      आदतन चार बजे वो चुंगी पर आ धमके। आज उन्होने गंजी लूँगी की जगह कुर्ता धोती पहन रखी थी । उनकी वेषभूषा को किसी ने ध्यान न दिया क्योंकि इस पहनावे में ही वो कस्बे से बाहर आते जाते थे। भगेलू सिंह ने किसी से यह चर्चा नहीं की कि पार्टी जिला अध्यक्ष आ रहा है। यद्यपि जयराम जलेबी वाले को कह रखा था कि पकौड़े और जलेबी का समान तैयार रखना और जैसे ही वो लोग आए, इशारा पाते ही नाश्ता लगा देना। पाँच बजे तक रोजाना की तरह चुंगी की चाय पान की दुकानों पर लोग जमा हो गए थे। भगेलू सिंह ने पहले से ही बेंच पर न बैठ एक कुर्सी पर आसन जमा रखा था। बंगलोर की गाड़ी, मौसम, दूरी आदि पर चर्चा हो ही रही थी कि अचानक एक जीप आई जिसपर एक बोर्ड लगा था जिलाध्यक्ष कांग्रेस कमेटी। जीप से रघुनाथ द्विवेदी उतरे और लपक कर भगेलू सिंह के चरण स्पर्श की ओर बढ़े। भगेलू सिंह ने प्राचीन महाकाव्यों में वर्णित यशस्वी भव कहकर आशीर्वाद दिया। विरोधियों ने इसे दूरदर्शन के महाभारत धारावाहिक से की गई नकल माना। रघुनाथ ने कहा चाचा आपके घर ही जा रहा था,लेकिन आप यहीं मिल गए। भगेलू सिंह ठहाका लगते हुए बोले कि अरे ये भी अपना घर है भाई और यहाँ सब अपना परिवार है, लेकिन चलो घर चलते हैं, वहीं बात करेंगे। वे उठ ही रहे थे कि जयराम ने आवाज़ दी ठाकुरसाहब चाय तैयार है पीकर जाइए। भगेलू सिंह ने रघुनाथ से चाय के लिए बैठने को कहा और जयराम से बोले , ‘अबे खाली चाय पिलाओगे। अपना बच्चा इतने दिन बाद आया है, चल कुछ नाश्ता ले आ। चुंगी पर बैठे सभी लोगों को सहज ही समझ आ गया कि नाश्ता मांगने का यह तरीका स्वागत से अधिक यह जताने का प्रयास है कि जिलाध्यक्ष को वो बच्चा ही समझते हैं। भगेलू के विरोधी इस को उनका बड़बोलापन करार देते इससे पहले ही रघुनाथ बोल पड़े हाँ भाई चच्चा की उंगली पकड़कर हमलोगों ने राजनीति सीखी है, जो आदेश। भगेलू सिंह यही चाहते थे। नाश्ता जल्दी ही आ गया। कुल 15-20 लोग थे, इसलिए भगेलू सिंह ने सभी को चाय देने के लिए कहा।
      इधर उधर की बातें होने लगीं। तभी जगदीश पांडे वहाँ पहुंचे और जैसा कि भगेलू सिंह ने पहले से उन्हें सिखाया हुआ था, बोले, ‘अच्छा तो दोनों नेताजी लोग बंगलोर जाने की तैयारी करने के लिए मिले हैं । रघुनाथ चुप ही थे कि भगेलू सिंह बोल पड़े, हाँ हाँ आउर का बे , एक ही साथ जाएंगे। एक से भले दो। तुमको चलना हो तो तुमहू चलो। जगदीश ने रटाया हुआ वाक्य कह डाला,’ अरे भाई आपलोगों को तो ठहरने की, खाने पीने की जगह मिलेगी, पार्टी से किराया भी वापिस हो जाएगा। हमें उहाँ कौन पूछेगा। भगेलू कहते रहे,’ अबे चलो बंगलोर में कोई दिक्कत नहीं होगी। हमरे समधी के साढ़ू का छोटका बेटा एचएमटी कंपनी में मैनेजर है। उसके यहाँ रुका जाएगा। बड़ा बंगला है मोटर भी है। इसके बाद वे रघुनाथ से बोले कि चलो अब घर चलें। बाकी बात वहीं करेंगे। रघुनाथ ने कहा कि चच्चा अब चलने दीजिए। देर हो जाएगी। बात तो हो ही चुकी है। जरा एक मिनट अकेले में बात करनी है। दोनों ने थोड़ी दूर जाकर अकेले में बातें की। फिर रघुनाथ चला गया। उसके उतरे हुए चेहरे को देखकर भगेलू सिंह बहुत खुश थे कि तीर सही निशाने पर बैठा है। दो तीन दिन में सभी को मालूम हो गया कि ज़िले से भगेलू सिंह ही कांग्रेस के अधिवेशन में जा रहे हैं। हर नगर कस्बे में कुछ ऐसे चमचत्व प्रवीण होते हैं जो किसी को किसी बात की बधाई देने के लिए मरे जा रहे होते हैं। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तर्ज पर सड़क या चौराहों पर बधाई के बहाने ऐसे बड़े बड़े होर्डिंग लगाते हैं, जिससे उनका भी थोड़ा बहुत प्रचार हो जाए । ऐसे लोगों ने भी भगेलू सिंह को बधाइयाँ दे डाली। कस्बे में चार पाँच होर्डिंग नज़र आने लगे। उन सबमें एक बात मुख्य रूप से लिखी थी कि कांग्रेस हाईकमान द्वारा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री भगेलू सिंह को महाधिवेशन में आमंत्रित किए जाने पर हार्दिक बधाई। भगेलू सिंह के विरोधी इससे कुढ़ कर रह जाते। जब थाने के उस दारोगा ने देखा तब वह मन ही मन घबरा गया। एक दिन उसने चुंगी पर आकर स्वयं माफी मांगी और कहा कि ठाकुर साहब बच्चे की गलती को दिल से न लीजिएगा। कई बार पहचान में भूल हो जाती है। हम तो आपके सेवक हैं। भगेलू सिंह फिर से दमदार हो गए थे।
      अधिवेशन की नियत तारीख से दो दिन पहले दोपहर को भगेलू सिंह रामनगर से इलाहाबाद रवाना हो गए। लोगों ने कहा कि आपकी गाड़ी तो परसों है। उन्होने जवाब दिया कि इलाहाबाद में कुछ लोगों से मिलना है और कुछ ख़रीदारी भी करनी है। बस स्टेशन तक कुछ लोग उन्हें छोडने आए। लगभग तीन घंटे बाद वे अपने भांजे के यहाँ पहुंचे जो इलाहाबाद में ही रहता था। उसने भगेलू सिंह की काफी आवभगत की। कुछ देर बाद बोले कि बेटा एक काम है। मैंने सोचा कि कुछ तीरथ कर लूँ इसलिए रेल का आरक्षण करना है। जरा स्कूटर निकालो और मुझे आरक्षण केंद्र पर ले चलो। भांजे ने पूछा कहाँ जाएंगे? अभी तो वेटिंग ही मिलेगा। यात्रा की योजना पहले बनानी थी। भगेलू सिंह बोले बेटा जब भगवान का बुलावा आता है तो दिन तारीख नहीं देखते। तुम मुझे वहाँ छोडकर वापिस आ जाना मैं रिक्शे से लौट आऊँगा। भांजा कुछ शर्मा सा गया, बोला मामाजी आप यहीं रहें। मैं आपका टिकट करा देता हूँ। भगेलू सिंह ने कहा नहीं मुझे वहाँ जाने दो।
      आरक्षण केंद्र पहुँचकर भगेलू सिंह ने बंगलोर का आरक्षण रद्द कराया, बाकी के पैसे लिए और मन ही मन योजना बनाई। पहले इलाहाबाद से अयोध्या, फिर अयोध्या से मथुरा, और मथुरा से लखनऊ होते हुए वापस।छोटी छोटी दूरी की यात्रा साधारण टिकट से भी संभव है। न तो आरक्षण का झंझट और न ही आराम का।  लखनऊ एक दिन रहकर बंगलोर अधिवेशन की जरूरी जानकारी ले लेने से यात्रा वृतांत भी पूरा हो जाएगा।
      बस अगले दिन वे इसी योजना पर अमल करते हुए निकले और हफ्ते भर में घूमते घामते लखनऊ  आ गए। लखनऊ के पार्टी कार्यालय से उन्होने अधिवेशन के सभी प्रस्तावों और अध्यक्ष के भाषण की प्रति लेने के बाद प्रांतीय कमेटी के एक सदस्य से जो कि बंगलोर की गाड़ी से सुबह ही आया था,  सम्मेलन की विधिवत जानकारी भी ली और डायरी में नोट भी कर लिया।  इस वृतांत को शब्द दर शब्द रामनगर आकर दुहराया, जिससे सभी को उनकी बंगलोर यात्रा का पूर्ण विश्वास हो गया। उनके पड़ोसी चापलूसों की संख्या भी बढ़ गई थी। एक दिन तो चापलूसी की हद हो गई, चुंगी पर शाम को गंगापार से कन्हैया हलवाई किसी काम से आए। भगेलू सिंह की मंडली में बैठे और बातों बातों में बोलने लगे, ‘ठाकुर साहब एक दिन अधिवेशन का रिकार्डेड प्रसारण टीवी पर आ रहा था। हमने अचानक टीवी खोला कि बिटिया बोली कि अरे वो रहे भगेलू चाचा। फिर हम देखे कि बहुत बड़ा पंडाल था आप मसनद लगाकर मंच के नीचे दायी ओर बैठे थे, रह रह कर ऊंघ रहे थे। हम तुरंत दौड़कर दुकान पर गए और छोटी वाली टीवी चालू किए, वैसे तो बार बार कैमरा इधर उधर दिखा रहा था लेकिन हर बार जैसे ही मंच के नीचे फोकस करता, ठाकुर साहब दिख जाते। हमारे दुकान में तो भीड़ लग गई। सब देखने लगे। निहोरिया भी कढ़ाई छोड़ के टीवी के सामने आ गया। इस चक्कर में रबड़ी जल गई। शाम को बड़का बेटा उसको डांटने लगा। फिर हम बोले यार ठाकुर साहब टीवी पर दिखाई दे रहे हैं और तुम हो कि 20-25 लीटर दूध की रबड़ी के लिए चिल्लाहट कर रहे हो। खबरदार जो निहोरिया को कुछ अंड-बंड कहे तो। तब बड़का बोला अच्छा! ठाकुर साहब को टीवी पर देखने में रबड़ी जली है, तब कोई बात नहीं ।
      इतना सुनते ही चुंगी पर बैठे कुछ लोगों ने दावा किया कि उनके भी अमुक दोस्त या रिश्तेदर ने उन्हें देखा था। भोला तिवारी ने रही सही कसर पूरी घर दी। चाचा आप मंच से इतनी दूर क्यों बैठे थे?  भगेलू सिंह बोले अरे यार मंच के नीचे मसनद पे एकाध झपकी भी लेने का मौका रहता है। मंच के ठीक सामने अध्यक्ष जी के आगे ऊँघने में थोड़ा ठीक नहीं लगता। इस सूचना के बाद भोला और वे एक दूसरे को रहस्यमय तरीके से देख ही रहे थे कि गले में एक सुपाड़ी अटक गई। वो चुपचाप खाँसते हुए घर चले गए। लोग उन्हें पहले से अधिक सम्मान देने लगे। भगेलू सिंह की धाक फिर बन गई थी। कभी कभी जब उन्हें लगता कि असर कम हो रहा है तो पंचक या मलमास के दिनों में कोई मुद्दा लेकर भूख हड़ताल करने लगते। हड़ताल चुंगी या चौराहे पर होती। कोशिश की जाती कि भूख हड़ताल खत्म करने के लिए कोई प्रांतीय या राष्ट्रीय स्तर का नेता आए और जूस पिला दे जिससे हड़ताल एक दो दिन में खत्म हो और समाचार पत्रों में अच्छी कवरेज मिले।
      लगभग तीन चार महीने बाद कस्बे के ही एक व्यवसायी राधेश्याम गुप्ता की बेटी की शादी थी। लड़का बंगलोर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। भगेलू सिंह को उनकी उपाधियों के साथ आमंत्रित किया गया था और वो भी उसी ठसक के साथ शामिल हुए। हलवाई से लेकर शामियाने वाले सभी को हड़काते रहे। द्वारपूजा में पंडित के बगल में बैठे। कोई ठाकुरसाहब कहकर संबोधित करता तो खुशी से फूले नहीं समाते। जयमाल की रस्म के बाद लड़के के पिता चाचा और अन्य समधी लोगों को भोजन कराया जा रहा था। भगेलू सिंह भी थोड़ी दूर पर बैठे थे। लड़के वाले बनारस के घाटों, मंदिरों की चर्चा करते हुए शहर की गंदगी और बिजली की कमी की बात चल पड़ी। लड़के वाले बनारस और बंगलोर की तुलना करते हुए शेख़ी बघार रहे थे। वैसे तो कोई कुछ जवाब नहीं दे रहा था क्योंकि लड़के वालों का प्रतिवाद भला कौन करे लेकिन जैसे ही उन्होने कहा कि भाई कुछ भी कहिए बंगलोर में रहने के बाद आपकी बेटी यूपी भूल जाएगी। यह बात राधेश्याम गुप्ता के बहनोई को खल गई जो कि खाँटी बनारसी थे। वे तुरंत भगेलू सिंह की तरफ मुखातिब हुए। बोले ठाकुर साहब जरा यहाँ आइए। समधी साहब से परिचय करा दूँ आपका। भगेलू सिंह को खतरे का आभास हो चला था। वे वहीं से बोले कि अरे भाई द्वारपूजा में मिल चुके हैं, आप जरा आराम से भोजन कराइए, आप खिला कम रहे हैं बात ज्यादा कर रहे हैं। लेकिन तब तक राधेशयम के बहनोई लड़के वालों से बोल पड़े कि जानते हैं भाई साहब अपने नेता जी अभी दीवाली से पहले बंगलोर में ही हफ्ता बिताकर लौटे हैं। अगर वो कह दें कि बंगलोर जाने के बाद बिटिया अपना गाँव देश भूल जाएगी तब हम मान जाएंगे।
      भगेलू सिंह का चेहरा अब कुछ सफ़ेद होने लगा। जबकि फरवरी का महीना था फिर भी माथे पर पसीना आने लगा। इससे पहले कि वे कोई और बहाना बनाते निकल जाते, लड़के चाचा और लड़की के फूफा उन्हीं के पास आ गए और उनके साथ वर पक्ष के एक दो लोग और थे। जैसे ही लड़के के चाचा ने पूछा, अरे ठाकुर साहब आप कब आए, किस ट्रेन से आए, वेलोर होते हुए आए या सिकंदराबाद होकर, कहाँ रुके थे, कब्बन पार्क देखा, केम्पेगौड़ा सर्किल गए, विधान सौधा देखा आदि आदि। भगेलू सिंह ने न तो झूठ बोला और न कुछ कहा। बुद्ध की तरह जीवन के सारभूत प्रश्नों पर मौन रहे। चुपचाप उठे और अपने घर चले गए। लड़के वालों ने कहा कि अजीब आदमी है, किसी बात का जवाब नहीं देते। किसी ने कहा सनकी है, किसी ने दंभी कहा। थोड़ी देर की बातचीत में ही सब समझ गए कि भगेलू सिंह कभी बंगलोर नहीं गए।
      अगली सुबह बारात जा चुकी थी और यह बात रामनगर में आम हो चली थी कि भगेलू सिंह ने सभी को उल्लू बनाया। चुंगी पर उस शाम रोजाना से ज्यादे भीड़ थी। लोग खुसफुसाहट कर रहे थे कि भगेलू सिंह अब कुछ दिनों तक चुंगी पर नहीं आएंगे। बाद में आएंगे भी तो किस मुंह से शाम को यहाँ बैठेंगे। कोई कह रहा था कि यार भगेलुआ गजब नौटंकीबाज है इसको तो नाटक में हाथ आजमाना चाहिए। शाम गहरी हो रही थी। कुछ लोग कह रहे थे कि अब पोल खुल गई,बहुत बढ़ बढ़ के बोलते थे, नेता की पूंछ बनते थे, अब तो इस आदमी का कोई विश्वास नहीं करेगा आदि आदि। हंसी मज़ाक का दौर जारी था कि अचानक सन्नाटा सा छा गया। जैसे अङ्ग्रेज़ी में कहते हैं पिन ड्रॉप साइलेंस ।
      लोगों ने देखा कि भगेलू सिंह उसी ठसक के साथ चुंगी की तरफ आ रहे हैं। धीमी खुसुर फुसुर के बीच उन्होने आवाज दी, ‘ अबे लल्लन जरा पान खिलाओ तो। फिर अपनी जगह जाकर बैठे। सबकी चुप्पी देख कर दो पल रुके, फिर बोले क्या बात है भाई आज काफी लोग जमा हैं। लल्लन ने पान दिया और बोला ठाकुर साहब लोग आज यही कह रहे है कि आपने बंगलोर अधिवेशन में जाने का झूठ क्यों फैलाया?
      बस इसके बाद तो जैसे बारूद फट पड़ा। भगेलू सिंह सबसे मुखातिब होकर बोले सालों, तसदीक करने आए हो। क्या सोचते हो तुम लोग? भगेलू सिंह भौकाल बनाने के लिए बंगलोर मीटिंग में जाने का टिकट कराया था और यहाँ से हफ्ते भर बाहर रहा। अरे कूढ़मगजों मैंने तुम्हारी ही भलाई के लिए ये सब किया। याद है नाटे मिस्त्री के लड़के का पुलिस ने किस तरह चालान किया था। मेरी सिफ़ारिश काम आई थी? नहीं आई न? दारोगा क्या बोला था? आप जैसे नेता बहुत देखे। और रघुनाथवा ने लड़के को छुड़वाया भी तो नाटे को कितना खर्चना पड़ा। अभी तक नाटे बो की हँसुली ज्वालाप्रसाद लालचंद सराफ के यहाँ गिरवी पड़ी है।  
जानते हो सालों तुमलोग, इसीलिए मैं बंगलोर गया था हाईकमान के बुलावे पर।
मेरे बंगलोर से आने के बाद भग्गू के यहाँ चोरी की रिपोर्ट किसके कहने पर लिखी गई? बोलो सब कि साँप सूंघ गया है। भीड़ ने कहा आपके कहने पर।
भगेलू सिंह बोलते गए, ‘नरायन का लड़का जो जबलपुर भागा था, उसको किसके पीछे पड़ने पर पुलिस ले आई?
भीड़ बोली आपके।
कस्बे में सोलह घंटे की बिजली कटौती को घटवाकर बारह घंटे करने के लिए भूख हड़ताल पर कौन बैठा?
भीड़- जी आप
भगेलू- सतनारायन लाल के बेटे को जब कटेसर वाले पीटकर अधमरा छोड़ गए तब कटेसर वालों को गिरफ्तार किसने करवाया?
भीड़-जी आपने
छक्कन के खलिहान में जब आग लग गई थी तो कलेक्टर के यहाँ से मुआवजा कौन दिलवाया ?
भीड़- आपने
      हरामखोरों पूरे कस्बे में कटिया मार के बिजली जलाते हो। हाइडिल वाले जब फुन्नन गुरु और सत्यवान के घर छापा मारे थे और इन दोनों को पकड़ कर ले जा रहे थे । बहुत कहने सुनने पर भी दस हजार से एक रुपया कम में हाइडिल वाले लेने को तैयार नहीं थे। सिर्फ चार हजार में मामला किसने रफा दफा करवाया?
भीड़- आपने और किसने 
      भगेलू सिंह ने सिंहनाद स्वर धरण करते हुए घोषणा की, ‘सालों जब तुम्हारा बेटा जुआ खेलते या दोपहिए पर तीन सवारी बैठाते हुए पकड़ कर हवालात जाता है और तुम लोगों की थाने के भीतर जाने में फटती है तो किसको साथ ले कर जाते हो?
भीड़- जी आपको
भगेलू सिंह जारी रहे, ‘ हर दुख विपत्ति, थाना कचहरी में भगेलू सिंह के बिना काम नहीं चलता और उल्टी सीधी अफवाहें फैलाते हो। मज़ाक उड़ाते हो। चल बताओ सब जने कि बंगलोर महाधिवेशन में रामनगर से कांग्रेस का कौन वरिष्ठ नेता भाग लेने गया था?
भीड़- जी आप गए थे।
      इसके बाद भगेलू सिंह भी ठहाका लगा कर हँसे। चुंगी पर जमा भीड़ ने भी ठहाका लगाया। हंसी के दौरान ही भगेलू सिंह ने आवाज लगाई,’ अबे जयराम चाय लाओगे या तुमको भी टेलीग्राम भेजें।
भीड़ धीरे धीरे छंटने लगी। अब वह भगेलू सिंह के बंगलोर यात्रा का महात्म्य समझ चुकी थी।